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बाग़ में रह के बहारों को निभाना होगा | शाही शायरी
bagh mein rah ke bahaaron ko nibhana hoga

ग़ज़ल

बाग़ में रह के बहारों को निभाना होगा

अंजुम अंसारी

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बाग़ में रह के बहारों को निभाना होगा
अपनी रूठी हुई ख़ुशियों को मनाना होगा

तोड़ना होगा छलकते हुए साग़र का ग़ुरूर
बिन पिए बज़्म को अब रंग पे आना होगा

ढालनी होगी उसी रात के दामन से सहर
टूटे तारों को ज़िया-बार बनाना होगा

थामनी हों जो तुझे वक़्त की नब्ज़ें हमदम
उड़ते लम्हों पे कोई नक़्श जमाना होगा

इन चराग़ों में भड़क उठ्ठे हैं शो'ले 'अंजुम'
अपनी रातों में दिया और जलाना होगा