EN اردو
बाग़ में जब कि वो दिल ख़ूँ-कुन-ए-हर-गुल पहुँचे | शाही शायरी
bagh mein jab ki wo dil KHun-kun-e-har-gul pahunche

ग़ज़ल

बाग़ में जब कि वो दिल ख़ूँ-कुन-ए-हर-गुल पहुँचे

अब्दुल रहमान एहसान देहलवी

;

बाग़ में जब कि वो दिल ख़ूँ-कुन-ए-हर-गुल पहुँचे
बिलबिलाती हुई गुलज़ार में बुलबुल पहुँचे

सदमा-ए-शाम-ए-अजल मुझ को न बिल्कुल पहुँचे
गर मिरी दाद को कल तक भी वो काकुल पहुँचे

दिल भी ले कर अलम-ए-आह मुक़ाबिल पहुँचा
नेज़ा-बाज़ान-ए-मिज़ा जब ब-तग़ाफ़ुल पहुँचे

मेहर कूचा तिरा झाड़े है ब-जारूब-ए-शुआ'
कि इसी तरह बहम तुझ से तवस्सुल पहुँचे

अपना ये मुँह तो न था आप तलक हम पहुँचें
आप का जब कि हुआ हम पे तफ़ज़्ज़ुल पहुँचे

हम-रह-ए-यास-ओ-अलम दश्त-ए-जुनूँ में कल हम
ब-तहम्मुल ब-तअम्मुल ब-तजम्मुल पहुँचे

गर तिरे वज़्न पे मैं सारे क़्वाफ़ी बाँधूँ
दम तिरा नाक में ऐ बाब-ए-तफ़व्वुल पहुँचे

ख़ाना-आबाद तुम्हारा हो कि हम हज़रत-ए-इश्क़
नफ़अ' को तुम से ब-अय्याम-ए-तवक्कुल पहुँचे

दर्द-ओ-ग़म यास-ओ-अलम सोज़-ए-दिल ओ दाग़-ए-जिगर
तोहफ़े जो आप ने भेजे हमें बिल्कुल पहुँचे

जब गया हुस्न तो आया तिरे इख़्लास का बार
अब तरक़्क़ी है तब अय्याम-ए-तनज़्ज़ुल पहुँचे

क़हर इक रिंद पे क़ुल पीर-ए-मुग़ाँ ने था पढ़ा
शे'र ये हम ने सुना सुनने को जब क़ुल पहुँचे

तर्स-ए-उक़बा है तो मय-ख़ाना में रह ऐ ज़ाहिद
तब बचो वाँ जो बजा कान में क़ुलक़ुल पहुँचे

रश्क-ए-गुल बाग़ में बैठा था तो हम भी 'एहसाँ'
ये ग़ज़ल पढ़ते हुए वाँ ब-तजाहुल पहुँचे