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बाग़ का बाग़ उजड़ गया कोई कहो पुकार कर | शाही शायरी
bagh ka bagh ujaD gaya koi kaho pukar kar

ग़ज़ल

बाग़ का बाग़ उजड़ गया कोई कहो पुकार कर

शहज़ाद अहमद

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बाग़ का बाग़ उजड़ गया कोई कहो पुकार कर
किस ने शफ़क़ पे मल दिए फूलों के रंग उतार कर

शाम को मौजा-ए-हवा जानिब-ए-दश्त ले उड़े
सुब्ह चमन में आ गए ख़ाक पे शब गुज़ार कर

साया-ए-आफ़्ताब में बर्ग ओ शरर ठिठुर गए
बर्फ़ कहाँ से आ गई धूप का रूप धार कर

पास ही मंज़िल-ए-मुराद ख़ाक में थी छुपी हुई
राह में पा-बुरीदा लोग बैठ चुके थे हार कर

आज तिरे ख़याल से दिल को बहुत सकूँ मिला
डूब चली ये मौज भी मुझ को उभार उभार कर

जल्वा-ए-माहताब भी शोबदा-ए-ख़याल है
रात के पास कुछ नहीं सुब्ह का इंतिज़ार कर

वलवला-ए-हयात के दिल में कई चराग़ थे
वक़्त ने सब बुझा दिए एक ही फूँक मार कर