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बाग़-ए-उल्फ़त में गुल जो ख़ुद-रौ है | शाही शायरी
bagh-e-ulfat mein gul jo KHud-raw hai

ग़ज़ल

बाग़-ए-उल्फ़त में गुल जो ख़ुद-रौ है

किशन कुमार वक़ार

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बाग़-ए-उल्फ़त में गुल जो ख़ुद-रौ है
ख़ून-ए-बुलबुल का रंग है बू है

आशिक़-ए-जाँ फ़िदा-ए-अबरू है
जो मह-ए-ईद सर-ब-ज़ानू है

फ़ित्ना-ए-हश्र ज़ुल्फ़-ए-उम्र-ए-दराज़
पर बला-ए-सियाह गेसू है

तेरी अबरू है तेग़ ऐ सफ़्फ़ाक
जौहर-ए-तेग़ चीन-ए-अबरू है

हुस्न उन का अगर है संगीं दिल
इश्क़ अपना भी सख़्त बाज़ू है

लें न शोर-ए-नुशूर से करवट
वो यहाँ ख़्वाब चार पहलू है

तोल ले शेर को मिरे हासिद
पास अगर नज़्म की तराज़ू है

क्यूँ न वो चश्म-ए-शौक़ में खटके
ऐ परी-रू कमर तिरी मू है

उस का आशिक़ हुआ हूँ जिस की 'वक़ार'
चश्म आहू निगाह आहू है