बाग़-ए-जहाँ के सादा जमालों से इश्क़ है
सब्ज़े से गुल से सर्व से लालों से इश्क़ है
हाँ ख़ार-ओ-ख़स से दिल को इलाक़ा है पास का
हाँ इस चमन के ताज़ा निहालों से इश्क़ है
सादा सी गुफ़्तुगू के ख़म-ओ-पेच हैं अज़ीज़
ख़ामोशियों के गर्म मक़ालों से इश्क़ है
जो बा-हुनर हैं उन के क़दम चूमते हैं हम
जो बे-हुनर हैं उन के कमालों से इश्क़ है
बूढ़ों के पारा पारा अज़ाएम का है मलाल
बच्चों के ताज़ा ताज़ा सवालों से इश्क़ है
हर बे-नवा फ़क़ीर को देते हैं ख़ून-ए-दिल
हर ख़ुश-नवा फ़क़ीर के नालों से इश्क़ है
सारे-जहाँ के तल्ख़-नवाओं से है नियाज़
सारे-जहाँ की शीरीं-मक़ालों से इश्क़ है
या कुफ़्र-ओ-दीं के जानने वालों से क्या ग़रज़
याँ कुफ़्र-ओ-दीं के मानने वालों से इश्क़ है

ग़ज़ल
बाग़-ए-जहाँ के सादा जमालों से इश्क़ है
ख़ुर्शीदुल इस्लाम