बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं 
गर यार हैं तो हम हैं अग़्यार हैं तो हम हैं 
दरिया-ए-मअरिफ़त के देखा तो हम हैं साहिल 
गर वार हैं तो हम हैं और पार हैं तो हम हैं 
वाबस्ता है हमीं से गर जब्र है ओ गर क़द्र 
मजबूर हैं तो हम हैं मुख़्तार हैं तो हम हैं 
तेरा ही हुस्न जग में हर-चंद मौजज़न है 
तिस पर भी तिश्ना-काम-ए-दीदार हैं तो हम हैं 
अल्फ़ाज़-ए-ख़ल्क़ हम बिन सब मोहमिलात से थे 
मअनी की तरह रब्त-ए-गुफ़्तार हैं तो हम हैं 
औरों से तो गिरानी यक-लख़्त उठ गई है 
ऐ 'दर्द' अपने दिल के गर बार हैं तो हम हैं
        ग़ज़ल
बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं
ख़्वाजा मीर 'दर्द'

