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बाग़-ए-बहिश्त के मकीं कहते हैं मर्हबा मुझे | शाही शायरी
bagh-e-bahisht ke makin kahte hain marhaba mujhe

ग़ज़ल

बाग़-ए-बहिश्त के मकीं कहते हैं मर्हबा मुझे

शहज़ाद अहमद

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बाग़-ए-बहिश्त के मकीं कहते हैं मर्हबा मुझे
फेंक के फ़र्श-ए-ख़ाक पर भूल गया ख़ुदा मुझे

मैं तिरा बंदा हूँ मगर तेरे जहाँ का राज़दार
तू है मिरा ख़ुदा मगर तो नहीं जानता मुझे

सोचता हूँ सुनाऊँ क्या अहद-ए-सितम की दास्ताँ
कहता हूँ ख़ैर छोड़िए याद नहीं रहा मुझे

था किसी साए का ख़याल थी किसी गुल की जुस्तुजू
दश्त की सम्त चल दिया देख के रास्ता मुझे

रोज़ नया मक़ाम है रोज़ नई उमंग है
तेरी तलाश क्या करूँ अपना नहीं पता मुझे

रंग था मैं तो क्यूँ ज़मीं मुझ से हुई न लाला-ज़ार
ख़ाक था मैं तो किस लिए ले न उड़ी हवा मुझे

लम्हा-ब-लम्हा दम-ब-दम चलता रहा क़दम क़दम
डूबते चाँद का सफ़र कितना अज़ीज़ था मुझे

गरचे मिरी चमक से बंद चश्म-ए-सितारा-ओ-फ़लक
नूर हूँ फिर भी नूर का रंग नहीं मिला मुझे

आँख उठा के मेरी सम्त अहल-ए-नज़र न देख पाए
आँख न हो तो किस क़दर सहल है देखना मुझे