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बाग़-ए-आलम में है बे-रंग बयान-ए-वाइ'ज़ | शाही शायरी
bagh-e-alam mein hai be-rang bayan-e-waiz

ग़ज़ल

बाग़-ए-आलम में है बे-रंग बयान-ए-वाइ'ज़

वज़ीर अली सबा लखनवी

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बाग़-ए-आलम में है बे-रंग बयान-ए-वाइ'ज़
सूरत-ए-बर्ग-ए-ख़िज़ानी है ज़बान-ए-वाइ'ज़

मिस्र में भी न ये फ़िरऔन का आलम होगा
देखे मस्जिद में कोई शौकत-ओ-शान-ए-वाइ'ज़

एक काँटा सा निकल जाए हमारे दिल से
संसियों से कोई खींचे जो ज़बान-ए-वाइ'ज़

क़ुलक़ुल-ए-शीशा-ए-मय से तिरे मय-कश साक़ी
सुन रहे हैं ख़बर-ए-राज़-ए-निहान-ए-वाइ'ज़

हाल मालूम हुआ नार-ओ-जिनाँ का क्यूँकर
इस क़दर तो नहीं ऊँचा है मकान-ए-वाइ'ज़

नाम-ए-मय वो है कि लब पर जो कभी आता है
मुँह से बाहर निकल आती है ज़बान-ए-वाइ'ज़

मय-कदे वालों से दबने लगे मस्जिद वाले
दौर साक़ी का है गुज़रा वो ज़मान-ए-वाइ'ज़

मैं भी वो हूँ जो मिरे आगे कभी मुँह खोले
काट डालूँ अभी दाँतों से ज़बान-ए-वाइ'ज़

अपने रिंदों की मैं हू-हक़ का हूँ सुनने वाला
या-इलाही न सुनाना सुख़नान-ए-वाइ'ज़

मैं परी-ज़ादों का आशिक़ हूँ तो वो हूरों का
मेरे सौदे से है बढ़ कर ख़फ़क़ान-ए-वाइ'ज़

पाए ख़ुम बैठ के नश्शे में वो बातें कीजे
लोग समझें सर-ए-मिंबर है बयान-ए-वाइ'ज़

ऐ 'सबा' ख़ुल्द में जाऊँ कि जहन्नम में जलूँ
न सुना है न सुनूँगा मैं बयान-ए-वाइ'ज़