बादशाही हो कि दरयूज़ा-गरी का मौसम
भूलता ही नहीं वो हम-सफ़री का मौसम
खेतियाँ छालों की होती थीं लहू उगते थे
कितना ज़रख़ेज़ था वो दर-बदरी का मौसम
हिर्ज़-ए-जाँ ठहरे जो सहरा में ठिकाना मिल जाए
बस्तियों में तो है आशुफ़्ता-सरी का मौसम
आओ ज़ख़्मों से फिर इक बार लिपट कर रो लें
वर्ना आने को है अब बख़िया-गरी का मौसम
रोज़-ए-अव्वल से है छाया हुआ मुझ पर अब तक
किर्चियाँ होने का शक़्क़-उल-बशरी का मौसम
अब कभी लौट कर आएगा न शायद 'आजिज़'
डूब कर पीने का दामन की तरी का मौसम

ग़ज़ल
बादशाही हो कि दरयूज़ा-गरी का मौसम
लईक़ आजिज़