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बादशाही हो कि दरयूज़ा-गरी का मौसम | शाही शायरी
baadshahi ho ki daryuza-gari ka mausam

ग़ज़ल

बादशाही हो कि दरयूज़ा-गरी का मौसम

लईक़ आजिज़

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बादशाही हो कि दरयूज़ा-गरी का मौसम
भूलता ही नहीं वो हम-सफ़री का मौसम

खेतियाँ छालों की होती थीं लहू उगते थे
कितना ज़रख़ेज़ था वो दर-बदरी का मौसम

हिर्ज़-ए-जाँ ठहरे जो सहरा में ठिकाना मिल जाए
बस्तियों में तो है आशुफ़्ता-सरी का मौसम

आओ ज़ख़्मों से फिर इक बार लिपट कर रो लें
वर्ना आने को है अब बख़िया-गरी का मौसम

रोज़-ए-अव्वल से है छाया हुआ मुझ पर अब तक
किर्चियाँ होने का शक़्क़-उल-बशरी का मौसम

अब कभी लौट कर आएगा न शायद 'आजिज़'
डूब कर पीने का दामन की तरी का मौसम