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बादा-मस्ती आ करामत हो के मयख़ाने में आ | शाही शायरी
baada-masti aa karamat ho ke maiKHane mein aa

ग़ज़ल

बादा-मस्ती आ करामत हो के मयख़ाने में आ

नातिक़ गुलावठी

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बादा-मस्ती आ करामत हो के मयख़ाने में आ
चल परी शीशे से उड़ कर मेरे पैमाने में आ

दूसरा ऐसा कहाँ ऐ दश्त ख़ल्वत का मक़ाम
अपनी वीरानी को ले कर मेरे वीराने में आ

वहशत-ए-दिल की नहीं तदबीर जुज़ अफ़्सुर्दगी
तंगी-ए-ज़िंदाँ किसी पहलू से दीवाने में आ

कर मुरत्तब कुछ नए अंदाज़ से अपना बयाँ
मरने वाले ज़िंदगी चाहे तो अफ़्साने में आ

चल निकल जाएँ इधर से अपनी दुनिया की तरफ़
हाँ तू ऐ तार-ए-नफ़स तस्बीह के दाने में आ

पेल ज़ोर आपे से बाहर हो के जाएगा कहाँ
आदमी बन आदमी आ अपने पैमाने में आ

दामन-ए-फ़ानूस में ऐ शम्अ' ख़ुद-दारी नहीं
किसवत-ए-नामूस अगर चाहे तो परवाने में आ

ख़त्म करना चाहता हूँ पेच-ओ-ताब-ए-ज़िंदगी
याद-ए-गेसू ज़ोर-ए-बाज़ू बन मिरे शाने में आ

हो चली है रस्म-ए-अहल-ए-काबा 'नातिक़' अब तो आम
बरहमन भी मुझ से कहता है कि बुत-ख़ाने में आ