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बादा-ख़ाने की रिवायत को निभाना चाहिए | शाही शायरी
baada-KHane ki riwayat ko nibhana chahiye

ग़ज़ल

बादा-ख़ाने की रिवायत को निभाना चाहिए

अलीम उस्मानी

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बादा-ख़ाने की रिवायत को निभाना चाहिए
जाम अगर ख़ाली भी हो गर्दिश में आना चाहिए

आज आना है उन्हें लेकिन न आना चाहिए
वा'दा-ए-फ़र्दा उसूलन भूल जाना चाहिए

तर्क करना चाहिए हरगिज़ न रस्म-ए-इंतिज़ार
मुंतज़िर को उम्र भर शमएँ जलाना चाहिए

जज़्ब कर लेते हैं अच्छी सूरतों को आइने
आइनों से किया तुम्हें आँखें मिलाना चाहिए

मेरे उस के बीच जो हालात की दीवार है
मुझ को उस दीवार में इक दर बनाना चाहिए

फिर करम-आगीं तबस्सुम में है पोशीदा सितम
होश-मंदों को पहेली बूझ जाना चाहिए

गर्दिश-ए-हालात से मायूस होना कुफ़्र है
उम्र भर इंसाँ को क़िस्मत आज़माना चाहिए

मेरी ग़ज़लें होंगी कल ना-महरमों के दरमियाँ
उस की ख़ुशबू मेरी ग़ज़लों में न आना चाहिए

हम तो क़ाइल ही नहीं महदूद-ए-उल्फ़त के 'अलीम'
हम को उल्फ़त के लिए सारा ज़माना चाहिए