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बादा-कशी के सिखलाते हैं क्या ही क़रीने सावन-भादों | शाही शायरी
baada-kashi ke sikhlate hain kya hi qarine sawan-bhadon

ग़ज़ल

बादा-कशी के सिखलाते हैं क्या ही क़रीने सावन-भादों

शाह नसीर

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बादा-कशी के सिखलाते हैं क्या ही क़रीने सावन-भादों
कैफ़िय्यत के हम ने जो देखा दो हैं महीने सावन-भादों

देखे न होंगे आज तलक ये ऐसे किसी ने सावन-भादों
चश्म की दौलत हम को रहे हैं बारह महीने सावन-भादों

छूटे हैं फ़व्वारा-ए-मिज़्गाँ रोज़-ओ-शब इन आँखों से
यूँ न बरसते देखे होंगे मिल के किसी ने सावन-भादों

टाँकने को फिरती है बिजली इस में गोट तमामी की
दामन-ए-अब्र के टुकड़ों को जब लगते हैं सीने सावन-भादों

भूले दम की आमद-ओ-शुद हम याद कर उस झूले की पेंगें
सूझे है बे-यार न देंगे आह ये जीने सावन-भादों

क्यूँकि न ये दुर-हा-ए-तगर्रग ऐ बादा-परस्तो! बरसाएँ
कान-ए-गुहर छट ज़र के नहीं रखते गंजीने सावन-भादों

कान-ए-जवाहर क्यूँकि न समझे खेत को दहक़ाँ ओलों से
बरसाते हैं मोतियों में हीरों के नगीने सावन-भादों

अब्र-ए-सियह में देखी थी बगलों की क़तार इस शक्ल से हम ने
याद दिलाए फिर के तिरे दंदान ओ मिसी ने सावन-भादों

खेत रखेगी आख़िर इक दिन फ़ुर्क़त दहक़ाँ-पिसर की 'नसीर'
करते हैं जूँ गंदुम शक़ मुग़लों के सीने सावन-भादों