बादा-कशी के सिखलाते हैं क्या ही क़रीने सावन-भादों
कैफ़िय्यत के हम ने जो देखा दो हैं महीने सावन-भादों
देखे न होंगे आज तलक ये ऐसे किसी ने सावन-भादों
चश्म की दौलत हम को रहे हैं बारह महीने सावन-भादों
छूटे हैं फ़व्वारा-ए-मिज़्गाँ रोज़-ओ-शब इन आँखों से
यूँ न बरसते देखे होंगे मिल के किसी ने सावन-भादों
टाँकने को फिरती है बिजली इस में गोट तमामी की
दामन-ए-अब्र के टुकड़ों को जब लगते हैं सीने सावन-भादों
भूले दम की आमद-ओ-शुद हम याद कर उस झूले की पेंगें
सूझे है बे-यार न देंगे आह ये जीने सावन-भादों
क्यूँकि न ये दुर-हा-ए-तगर्रग ऐ बादा-परस्तो! बरसाएँ
कान-ए-गुहर छट ज़र के नहीं रखते गंजीने सावन-भादों
कान-ए-जवाहर क्यूँकि न समझे खेत को दहक़ाँ ओलों से
बरसाते हैं मोतियों में हीरों के नगीने सावन-भादों
अब्र-ए-सियह में देखी थी बगलों की क़तार इस शक्ल से हम ने
याद दिलाए फिर के तिरे दंदान ओ मिसी ने सावन-भादों
खेत रखेगी आख़िर इक दिन फ़ुर्क़त दहक़ाँ-पिसर की 'नसीर'
करते हैं जूँ गंदुम शक़ मुग़लों के सीने सावन-भादों
ग़ज़ल
बादा-कशी के सिखलाते हैं क्या ही क़रीने सावन-भादों
शाह नसीर