बाब-ए-हैरत से मुझे इज़्न-ए-सफ़र होने को है
तहनियत ऐ दिल कि अब दीवार दर होने को है
खोल दें ज़ंजीर-ए-दर और हौज़ को ख़ाली करें
ज़िंदगी के बाग़ में अब सह-पहर होने को है
मौत की आहट सुनाई दे रही है दिल में क्यूँ
क्या मोहब्बत से बहुत ख़ाली ये घर होने को है
गर्द-ए-रह बन कर कोई हासिल सफ़र का हो गया
ख़ाक में मिल कर कोई लाल-ओ-गुहर होने को है
इक चमक सी तो नज़र आई है अपनी ख़ाक में
मुझ पे भी शायद तवज्जोह की नज़र होने को है
गुम-शुदा बस्ती मुसाफ़िर लौट कर आते नहीं
मोजज़ा ऐसा मगर बार-ए-दिगर होने को है
रौनक़-ए-बाज़ार-ओ-महफ़िल कम नहीं है आज भी
सानेहा इस शहर में कोई मगर होने को है
घर का सारा रास्ता इस सरख़ुशी में कट गया
इस से अगले मोड़ कोई हम-सफ़र होने को है
ग़ज़ल
बाब-ए-हैरत से मुझे इज़्न-ए-सफ़र होने को है
परवीन शाकिर