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ब-ज़ाहिर ये वही मिलने बिछड़ने की हिकायत है | शाही शायरी
ba-zahir ye wahi milne bichhaDne ki hikayat hai

ग़ज़ल

ब-ज़ाहिर ये वही मिलने बिछड़ने की हिकायत है

अरमान नज्मी

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ब-ज़ाहिर ये वही मिलने बिछड़ने की हिकायत है
यहाँ लेकिन घरों के भी उजड़ने की हिकायत है

सिपह-सालार कुछ लिखता है तस्वीर-ए-हज़ीमत में
मगर ये तो अदू के पाँव पड़ने की हिकायत है

कनीज़-ए-बे-नवा ने एक शहज़ादे को चाहा क्यूँ
मोहब्बत ज़िंदा दीवारों में गड़ने की हिकायत है

खुली आँखें तो काँधों पर किताबों से भरा बस्ता
लड़कपन अब कहाँ तितली पकड़ने की हिकायत है

कई सदियाँ गँवा दीं हम ने कम-कोशी की राहत में
बहुत ही दुख भरी अपने बिछड़ने की हिकायत है

पराई ख़ाक ने उन पर कहीं बाँहें न फैलाईं
ये हिजरत का सफ़र जड़ से उखड़ने की हिकायत है

क़दम कब तक जमे रहते मिरे सैलाब की ज़द में
मिरी बे-चारगी तिनके पकड़ने की हिकायत है