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ब-सत्ह-आब कोई अक्स-ए-ना-तवाँ न पड़ा | शाही शायरी
ba-sath-e-ab koi aks-e-na-tawan na paDa

ग़ज़ल

ब-सत्ह-आब कोई अक्स-ए-ना-तवाँ न पड़ा

जाफ़र शिराज़ी

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ब-सत्ह-आब कोई अक्स-ए-ना-तवाँ न पड़ा
हवा गुज़र भी गई और कहीं निशाँ न पड़ा

बड़े सुकून से देखा है जलते लम्हों को
हमारी आँख में वर्ना धुआँ कहाँ न पड़ा

कठिन भी ऐसा न था मेरी तेरी सुल्ह का काम
कोई भी शख़्स मिरे तेरे दरमियाँ न पड़ा

हुए हैं ख़ाक ख़मोशी के दश्त में खो कर
हमारे कान में ही शोर-ए-कारवाँ न पड़ा

बला की धूप है 'जाफ़र' किसी को होश नहीं
पड़ा है अब्र का साया कहाँ कहाँ न पड़ा