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ब-सद आरज़ू जो वो आया तो ये हिजाब-ए-इश्क़ से हाल था | शाही शायरी
ba-sad aarzu jo wo aaya to ye hijab-e-ishq se haal tha

ग़ज़ल

ब-सद आरज़ू जो वो आया तो ये हिजाब-ए-इश्क़ से हाल था

जुरअत क़लंदर बख़्श

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ब-सद आरज़ू जो वो आया तो ये हिजाब-ए-इश्क़ से हाल था
कि हज़ारों दिल में थीं हसरतें और उठाना आँख मुहाल था

रहा शब जो हम से जुदा कोई तो कहे ये वाक़िआ क्या कोई
शब-ए-हिज्र थी कि बला कोई जिसे देखते ही विसाल था

रुख़-ए-यार ता न पड़ा नज़र रहे हम अलम से ये नौहागर
कि हमारे रंज-ओ-मलाल पर तो मलाल को भी मलाल था

करे कौन उस से बराबरी मह-ओ-ज़ोहरा सब को थी हम-सरी
दम-ए-सुब्ह देख सितमगरी रुख़-ए-महर ज़र्रा-मिसाल था

शब-ए-वस्ल देख के ख़्वाब में मैं पड़ा था सख़्त अज़ाब में
थे हज़ार सोच जवाब में अजब उस का मुझ से सवाल था

मिरे जोश-ए-अश्क से बहरा-वर हुए कुल जहान के बहर-ओ-बर
न बरसती आज ये चश्म-ए-तर तो ख़ुदा-न-ख़्वास्ता काल था

जो नुमूद करते ही आप से लगे बैठने वो शिताब से
तो ये पूछे कोई हुबाब से कि फुलाए अपने ये गाल था

हवा मैं भी दाख़िल-ए-कुश्तगाँ तो अबस तू होवे है सर-गराँ
कि मिरे गले की तरफ़ मियाँ तिरे आब-ए-तेग़ का ढाल था

दिया खा के आप ने पान जो दिल-ए-मुब्तला हुआ सुर्ख़-रू
उसे समझा पेट का बोझ वो जो तुम्हारे मुँह का उगाल था

जो मरीज़ था पड़ा जाँ-ब-लब ख़बर और कुछ नहीं उस की अब
मगर इतना कहते हैं लोग सब कि बड़ा ये नेक-ख़िसाल था

जो चमन से दूर क़फ़स हुआ तो मैं और असीर-ए-हवस हुआ
ये जो ज़ुल्म अब के बरस हुआ यही क़हर अगले भी साल था

नहीं चाहता है अब आसमाँ कि हम और वो हूँ ब-यक-मकाँ
कहीं आ गया जो वो शब को याँ कि बुलाना जिस का मुहाल था

तो ये रंग चम्बर-ए-चर्ख़ का नज़र आए था मुझे बरमला
कभी था सियह कभी ज़र्द था कभी सब्ज़ था कभी लाल था

न किसी ने क़द्र की 'जुरअत' अब कहे शेर गरचे अजब अजब
जो न होंगे हम तो कहेंगे सब कि बड़ा ये अहल-ए-कमाल था