EN اردو
ब-रोज़-ए-हश्र मिरे साथ दिल-लगी ही तो है | शाही शायरी
ba-roz-e-hashr mere sath dil-lagi hi to hai

ग़ज़ल

ब-रोज़-ए-हश्र मिरे साथ दिल-लगी ही तो है

फ़ारूक़ बाँसपारी

;

ब-रोज़-ए-हश्र मिरे साथ दिल-लगी ही तो है
कि जैसे बात कोई आप से छुपी ही तो है

न छेड़ो बादा-कशो मय-कदे में वाइज़ को
बहक के आ गया बेचारा आदमी ही तो है

क़ुसूर हो गया क़दमों पे लोट जाने का
बुरा न मानिए सरकार बे-ख़ुदी ही तो है

रियाज़-ए-ख़ुल्द का इतना बढ़ा चढ़ा के बयाँ
कि जैसे वो मिरे महबूब की गली ही तो है

यक़ीं मुझे भी है वो आएँगे ज़रूर मगर
वफ़ा करेगी कहाँ तक कि ज़िंदगी ही तो है

मिरे बग़ैर अंधेरा तुम्हें सताएगा
सहर को शाम बना देगी आशिक़ी ही तो है

ब-चश्म-ए-नम तिरी दरगाह से गया 'फ़ारूक़'
ख़ता मुआफ़ कि ये बंदा-परवरी ही तो है