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ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ मोहब्बत का कारोबार चले | शाही शायरी
ba-qadr-e-zarf mohabbat ka karobar chale

ग़ज़ल

ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ मोहब्बत का कारोबार चले

मैकश नागपुरी

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ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ मोहब्बत का कारोबार चले
मज़ा तो जब है कि हर लम्हा ज़िक्र-ए-यार चले

तिरी निगाह के जब अहल-ए-दिल पे वार चले
ख़िज़ाँ-नसीब चमन जानिब-ए-बहार चले

उतर न जाए कहीं तेरे हुस्न की रंगत
कि तेरी बज़्म से अब तेरे जाँ-निसार चले

जो आ गई कभी सर देने की घड़ी ऐ दोस्त
ख़ुशी ख़ुशी तिरे दीवाने सू-ए-दार चले

उदास देख के माहौल-ए-मय-कदा साक़ी
नियाज़-मंद-ए-वफ़ा आज सोगवार चले

मआल-ए-लज़्ज़त-ए-शौक़-ए-विसाल की सौगंद
क़रार माँगने आए थे बे-क़रार चले

ख़याल-ए-बादा-कशी आ गया जो ऐ 'मैकश'
अदब से जानिब-ए-मय-ख़ाना बादा-ख़्वार चले