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ब-नाम-ए-इश्क़ ग़म-ए-मो'तबर ज़रूरी है | शाही शायरी
ba-nam-e-ishq gham-e-motabar zaruri hai

ग़ज़ल

ब-नाम-ए-इश्क़ ग़म-ए-मो'तबर ज़रूरी है

मोहम्मद मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा

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ब-नाम-ए-इश्क़ ग़म-ए-मो'तबर ज़रूरी है
हयात के लिए कोई हुनर ज़रूरी है

कुछ और हो न हो हासिल बक़ा-ए-दिल के लिए
इक इज़्तिराब-ए-मुसलसल मगर ज़रूरी है

नशात-ए-दीद जो मंज़ूर है तो ऐ यारो
नज़र के साथ ख़ुलूस-ए-नज़र ज़रूरी है

बहुत ग़लत है तमन्ना-ए-ख़ुद-फ़रामोशी
वफ़ूर-ए-इश्क़ में अपनी ख़बर ज़रूरी है

ख़याल-ए-ज़ीनत-ए-फ़स्ल-ए-बहार से पहले
मिज़ाज-दानी-ए-बर्क़-ओ-शरर ज़रूरी है

कुछ हम भी आप से उम्मीद-ए-लुत्फ़ रखते हैं
उधर भी एक उचटती नज़र ज़रूरी है

चमन को और हसीं-तर बनाना है 'मंशा'
तो रंग-कारी-ए-ख़ून-ए-जिगर ज़रूरी है