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ब-जुज़ मता-ए-दिल-ए-लख़्त-लख़्त कुछ भी नहीं | शाही शायरी
ba-juz mata-e-dil-e-laKHt-laKHt kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

ब-जुज़ मता-ए-दिल-ए-लख़्त-लख़्त कुछ भी नहीं

रईसुदीन रईस

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ब-जुज़ मता-ए-दिल-ए-लख़्त-लख़्त कुछ भी नहीं
मिरी निगाह में तदबीर-ओ-बख़्त कुछ भी नहीं

गुज़रते वक़्त की सूरत हरीफ़ भी न रहे
बुरी निगाह न लहजे करख़्त कुछ भी नहीं

मसाफ़तों की घनी धूप में हैं तन्हा हम
हमारी राह में साए दरख़्त कुछ भी नहीं

मैं नक़्श-ओ-रंग की दुनिया लुटा के आया हूँ
मिरी निगाह मैं अब ताज-ओ-तख़्त कुछ भी नहीं

हमें 'रईस' जो लूटे तो कोई क्या लूटे
हमारे पास तो अब साज़-ओ-रख़्त कुछ भी नहीं