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ब-जुज़ ख़याल-ए-ग़म-ए-मोहब्बत कोई मिरा हम-सफ़र नहीं है | शाही शायरी
ba-juz KHayal-e-gham-e-mohabbat koi mera ham-safar nahin hai

ग़ज़ल

ब-जुज़ ख़याल-ए-ग़म-ए-मोहब्बत कोई मिरा हम-सफ़र नहीं है

गौहर उस्मानी

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ब-जुज़ ख़याल-ए-ग़म-ए-मोहब्बत कोई मिरा हम-सफ़र नहीं है
मैं अब वहाँ से गुज़र रहा हूँ जहाँ किसी का गुज़र नहीं है

अलम भी कब साथ छोड़ जाए किसी को उस की ख़बर नहीं है
बहार तो फिर बहार ठहरी ख़िज़ाँ भी अब मो'तबर नहीं है

फ़ज़ाएँ निकहत में ढल रही हैं वफ़ा का इक़रार हो रहा है
ख़ुद अपने जल्वों में वो भी गुम हैं हमें भी अपनी ख़बर नहीं है

मुझे हक़ीक़त से वास्ता है नक़ीब-ए-फ़ितरत हूँ मैं अज़ल से
ख़िज़ाँ को फ़स्ल-ए-बहार कह दूँ ये मेरा ज़र्फ़-ए-नज़र नहीं है