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अज़्मत-ए-फ़न के परस्तार हैं हम | शाही शायरी
azmat-e-fan ke parastar hain hum

ग़ज़ल

अज़्मत-ए-फ़न के परस्तार हैं हम

मोहसिन भोपाली

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अज़्मत-ए-फ़न के परस्तार हैं हम
ये ख़ता है तो ख़ता-वार हैं हम

जोहद की धूप है ईमान अपना
मुंकिर-ए-साया-ए-दीवार हैं हम

जानते हैं तिरे ग़म की क़ीमत
मानते हैं कि गुनहगार हैं हम

उस को चाहा था कभी ख़ुद की तरह
आज ख़ुद अपने तलबगार हैं हम

अहल-ए-दुनिया से शिकायत न रही
वो भी कहते हैं ज़ियाँ-कार हैं हम

कोई मंज़िल है न जादा 'मोहसिन'
सूरत-ए-गर्दिश-ए-परकार हैं हम