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अज़ल की याद में मैं गर्म-ए-आह-ए-सर्द हुआ | शाही शायरी
azal ki yaad mein main garm-e-ah-e-sard hua

ग़ज़ल

अज़ल की याद में मैं गर्म-ए-आह-ए-सर्द हुआ

राग़िब बदायुनी

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अज़ल की याद में मैं गर्म-ए-आह-ए-सर्द हुआ
लगी थी चोट कभी और आज दर्द हुआ

गुज़र गया ये निगाहों से तेरा मरकब-ए-हुस्न
तमाम आलम-ए-दिल इक क़दम में गर्द हुआ

ग़लत कि क़ाबिल-ए-दार-ओ-रसन हों अहल-ए-हवस
बँधाई इश्क़ ने हिम्मत जिसे वो मर्द हुआ

परे वो अक़्ल से हैं इस यक़ीं ने रोक लिया
कभी जो वहम के पीछे में रह-नवर्द हुआ

तमाम तजरबा-ए-गर्म-ओ-सर्द-ए-इश्क़ कहाँ
कुछ अश्क-ए-गर्म हुआ दिल कुछ आह-ए-सर्द हुआ

नक़ाब उन की उठी थी कि हम हुए बेहोश
निगाह उन से लड़ी थी कि दिल में दर्द हुआ

करम से अपने मिटा दो कि बे-क़रार है इश्क़
मिरा वजूद कि दुनिया के दिल का दर्द हुआ

शुहूद-ए-बे-जिहत-ओ-कैफ़ मुंसलिक 'राग़िब'
जुनूँ उसे जो किसी सम्त रह-नवर्द हुआ