अज़ल के दिन जिन्हें देखा था बज़्म-ए-हुस्न-ए-पिन्हाँ में
सिमट आएँ वही रानाइयाँ तस्वीर-ए-जानाँ में
मिरा ज़ौक़-ए-नज़र अब उस मक़ाम-ए-आशिक़ी पर है
जहाँ उलझा हुआ है हुस्न भी ख़्वाब-ए-परेशाँ में
बढ़ा दे काश कोई वुसअ'तें अनवार-ए-मा'नी की
मुझे तरमीम करना है मज़ाक़-ए-चश्म-ए-हैराँ में
अभी गुंजाइशें देखी कहाँ हैं अहल-ए-आलम ने
समा जा ऐ अजल आ तू भी ख़लवत-ख़ाना-ए-जाँ में
हर इक तार-ए-गरेबाँ हासिल-ए-सद-बर्क़-ए-ऐमन है
ख़ुदा-मालूम कितने हुस्न हैं चाक-ए-गरेबाँ में
ख़ुदा रक्खे मिरे दामन में है इक फूल ऐसा भी
खटकता है जो काँटे की तरह चश्म-ए-गुलिस्ताँ में
अज़ल के रोज़ से अर्श-ओ-मलाइक सज्दा करते हैं
कोई तो बात है ऐ 'आरज़ू' तरकीब-ए-इंसाँ में
ग़ज़ल
अज़ल के दिन जिन्हें देखा था बज़्म-ए-हुस्न-ए-पिन्हाँ में
आरज़ू सहारनपुरी