अज़ाब टूटे दिलों को हर इक नफ़स गुज़रा
शिकस्ता-पा थे गराँ मुज़्दा-ए-जरस गुज़रा
हुजूम-ए-जल्वा-ओ-नैरंगी-ए-तमन्ना से
तमाम मौसम-ए-गुल मौसम-ए-हवस गुज़रा
अजब नहीं कि हयात-ए-दवाम भी बख़्शे
वो एक लम्हा-ए-फ़ुर्क़त जो इक बरस गुज़रा
ये मस्लहत कि कहीं दहर है कहीं फ़िरदौस
वही जो आलम-ए-दिल हम पे हम-नफ़स गुज़रा
ग़म-ए-मआल रहा अर्ज़-ए-शौक़ से पहले
इस एक बात पे क्या क्या न पेश-ओ-पस गुज़रा
कशाकश-ए-ग़म-ए-आज़ादी-ओ-असीरी में
हर आशियाँ पे कोई आलम-ए-क़फ़स गुज़रा
रह-ए-तलब में हैं दर-माँदा राहबर 'ताबिश'
यही है हाल तो ये क़ाफ़िला भी बस गुज़रा
ग़ज़ल
अज़ाब टूटे दिलों को हर इक नफ़स गुज़रा
ताबिश देहलवी