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अज़ाब-ए-हिज्र भी है राहत-ए-विसाल के साथ | शाही शायरी
azab-e-hijr bhi hai rahat-e-visal ke sath

ग़ज़ल

अज़ाब-ए-हिज्र भी है राहत-ए-विसाल के साथ

शाज़ तमकनत

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अज़ाब-ए-हिज्र भी है राहत-ए-विसाल के साथ
मिली तो हैं मुझे ख़ुशियाँ मगर मलाल के साथ

तुम्हारी याद में भी ज़ब्त-ओ-एतिदाल कहाँ
मैं तुम से कैसे मिलूँ ज़ब्त-ओ-एतिदाल के साथ

यही बहुत है ज़माने में चार-दिन के लिए
अगर हयात कटे एक हम-ख़याल के साथ

कुछ इस तरह शब-ए-मह ने किरन की दस्तक दी
उभर गईं कई चोटें किसी ख़याल के साथ

उफ़ुक़ नहीं तो किसी चाँद का तसव्वुर क्या
सितारे डूब गए दर्द के ज़वाल के साथ

शफ़क़ गुलाल कली चाँदनी अलाप सहर
नज़र के सामने आए तिरी मिसाल के साथ

भटक रहा हूँ कि फ़र्दा का रास्ता गुम है
क़दम क़दम मिरा माज़ी है मेरे हाल के साथ

उसे सुनूँ कि उसे देखता रहूँ ऐ 'शाज़'
जमाल-ए-नग़्मा भी है नग़्मा-ए-जमाल के साथ