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अज़ाब-ए-हसरत-ओ-आलाम से निकल जाओ | शाही शायरी
azab-e-hasrat-o-alam se nikal jao

ग़ज़ल

अज़ाब-ए-हसरत-ओ-आलाम से निकल जाओ

नाज़ ख़यालवी

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अज़ाब-ए-हसरत-ओ-आलाम से निकल जाओ
मिरी सहर से मिरी शाम से निकल जाओ

बहाना चाहिए घर से कोई निकलने को
किसी तलब में किसी काम से निकल जाओ

हमारे ख़ाना-ए-दिल में रहो सुकून के साथ
निकलना चाहो तो आराम से निकल जाओ

ख़ुदा नसीब करे तुम को बे-घरी का मज़ाक़
हिसार-ए-शौक़-ए-दर-ओ-बाम से निकल जाओ

सफ़र है शर्त मुसाफ़िर-नवाज़ बहुतेरे
किसी तरफ़ भी किसी काम से निकल जाओ

निकाल फेंको दिलों से बुतान-ए-बुग़्ज़-ओ-इनाद
नहीं तो हल्क़ा-ए-इस्लाम से निकल जाओ