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अज़-सर-ए-नौ फ़िक्र का आग़ाज़ करना चाहिए | शाही शायरी
az-sar-e-nau fikr ka aaghaz karna chahiye

ग़ज़ल

अज़-सर-ए-नौ फ़िक्र का आग़ाज़ करना चाहिए

काविश बद्री

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अज़-सर-ए-नौ फ़िक्र का आग़ाज़ करना चाहिए
बे-पर-ओ-बाल सही परवाज़ करना चाहिए

सत्ह पर रहते हैं उन को डूबना आता नहीं
क्यूँ न इन तिनकों को सर-अफ़राज़ करना चाहिए

क़ुर्ब में दूरी बहुत है बोद में क़ुर्बत बहुत
हर तवालत को अता ईजाज़ करना चाहिए

दिल बना ताऊस अंदेशे बने ज़ाग़ ओ ज़ग़न
ज़ेहन को हम-पाया-ए-शहबाज़ करना चाहिए

हर अदा माशूक़ की बनती है पैमान-ए-वफ़ा
लग़्ज़िश-ए-पा को नज़र-अंदाज़ करना चाहिए

शेर की तख़्लीक़ 'काविश' फ़ेल-ए-जिंसी तो नहीं
मानवी औलाद पर ही नाज़ करना चाहिए