अयाँ है बे-रुख़ी चितवन से और ग़ुस्सा निगाहों से
पयाम-ए-ख़ामुशी और वो भी दो दो नश्र-गाहों से
वबाल-ए-जाँ है ऐसी ज़िंदगी जिस में तलातुम हो
मिटा लूँ हौसले फिर तौबा कर लूँगा गुनाहों से
फ़ज़ा महदूद कब है ऐ दिल-ए-वहशी फ़लक कैसा
निलाहट है नज़र की देखते हैं जो निगाहों से
हक़ीक़त में निगाहों से कोई मंज़िल नहीं बचती
गुज़रते देखे हैं गोशा-नशीं तक शाह-राहों से
तही-दस्तान-ए-क़िस्मत को न लेना था न देना था
हिसाब-ए-ज़िंदगी क्या है ये पूछो बादशाहों से
हमें तो जलते दिल की रौशनी में आगे बढ़ना है
हटा दो क़ुमक़ुमे बिजली के ना-हमवार राहों से
मिरे नालों के सब शाकी कोई उन को नहीं कहता
खुरचते रहते हैं जो ज़ख़्म-ए-दिल ख़ूनी निगाहों से
पिला दो ज़हर-ए-ग़म दिल को न छोड़े गर हवस-कारी
गुनह वो एक अच्छा जो बचा ले सौ गुनाहों से
हमीं कुछ 'आरज़ू' फेर उन की बातों का समझते हैं
जो हक़-पोशी में सच को झूट करते हैं गवाहों से
ग़ज़ल
अयाँ है बे-रुख़ी चितवन से और ग़ुस्सा निगाहों से
आरज़ू लखनवी