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औरों पे इत्तिफ़ाक़ से सब्क़त मिली मुझे | शाही शायरी
auron pe ittifaq se sabqat mili mujhe

ग़ज़ल

औरों पे इत्तिफ़ाक़ से सब्क़त मिली मुझे

बाक़र मेहदी

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औरों पे इत्तिफ़ाक़ से सब्क़त मिली मुझे
भूले से सर-कशी की रिवायत मिली मुझे

ग़ैरों की दोस्ती से किसे हमदमी मिली
सब से बिछड़ के अपनी रिफ़ाक़त मिली मुझे

शहरों में भी सराब की तहरीर पढ़ सका
ना-बीना फ़लसफ़ी की बसारत मिली मुझे

बस मेरा ज़िक्र आते ही महफ़िल उजड़ गई
शैताँ के बा'द दूसरी शोहरत मिली मुझे

दुनिया में रोज़ हश्र का हंगाम देख कर
महजूब सर बरहना क़यामत मिली मुझे

कुछ दिल-ख़राश शे'र कहे और चल बसा
हाँ ज़िंदगी में इतनी ही मोहलत मिली मुझे

सोचा था अपने अहद का इक मर्सिया लिखूँ
'बाक़र' ग़ज़ल ही कहने की फ़ुर्सत मिली मुझे