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और तो ख़ैर क्या रह गया | शाही शायरी
aur to KHair kya rah gaya

ग़ज़ल

और तो ख़ैर क्या रह गया

अजमल सिराज

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और तो ख़ैर क्या रह गया
हाँ मगर इक ख़ला रह गया

ग़म सभी दिल से रुख़्सत हुए
दर्द बे-इंतिहा रह गया

ज़ख़्म सब मुंदमिल हो गए
इक दरीचा खुला रह गया

रंग जाने कहाँ उड़ गए
सिर्फ़ इक दाग़ सा रह गया

आरज़ूओं का मरकज़ था दिल
हसरतों में घिरा रह गया

रह गया दिल में इक दर्द सा
दिल में इक दर्द सा रह गया

ज़िंदगी से तअल्लुक़ मिरा
टूट कर भी जुड़ा रह गया

हम भी आख़िर पशेमाँ हुए
आप को भी गिला रह गया

कोई मेहमान आया नहीं
घर हमारा सजा रह गया

उस ने पूछा था क्या हाल है
और मैं सोचता रह गया

जाम क्या क्या न ख़ाली हुए
दर्द से दिल भरा रह गया

किस को छोड़ा ख़िज़ाँ ने मगर
ज़ख़्म दिल का हरा रह गया

ये भी कुछ कम नहीं है कि दिल
गर्द-ए-ग़म से अटा रह गया

काम 'अजमल' बहुत थे हमें
हाथ दिल पर धरा रह गया