और थोड़ा सा बिखर जाऊँ यही ठानी है
ज़िंदगी मैं ने अभी हार कहाँ मानी है
हाथ पर हाथ धरे बैठे तो कुछ मिलता नहीं
दश्त ओ सहरा की मियाँ ख़ाक कभी छानी है
क़त्ल को क़त्ल जो कहते हैं ग़लत कहते हैं
कुछ नहीं ज़िल्ल-ए-इलाही की ये नादानी है
सहम जाते हैं अगर पत्ता भी कोई खड़के
जानते सब हैं तिरा ज़िम्मा निगहबानी है
अपनी ग़ैरत का समुंदर अभी सूखा तो नहीं
बूँद भर ही सही आँखों में अभी पानी है

ग़ज़ल
और थोड़ा सा बिखर जाऊँ यही ठानी है
हसनैन आक़िब