और कुछ लफ़्ज़ गढ़ूँ सनअत-ए-ईहाम ग़लत
है ये ख़ुद अपनी ख़ुदी इस का ख़ुदा नाम ग़लत
जुम्बिशें उस की ग़लत हैं कि ख़ुद अबरू में है ख़म
उस की तामील में ये गर्दिश-ए-अय्याम ग़लत
ये सफ़र क्या कि जहाँ छाँव मिली बैठ गए
धूप कितनी ही कड़ी हो मगर आराम ग़लत
हवस-ए-दाना अगर है तो सू-ए-दाम चलो
हवस-ए-दाना ओ अंदेशगी-ए-दाम ग़लत
इस से बेहतर थी कहीं गोशा-ए-आराम में नींद
ये सफ़र क्या कि हर इक राह हर इक गाम ग़लत
नहीं अफ़्सूँ ही को अफ़्साने की मंज़िल मालूम
ग़लत आग़ाज़ का होता ही है अंजाम ग़लत
'मज़हरी' चल न सके वक़्त-सुबुक-गाम के साथ
हम-सफ़र पैरवी-ए-वक़्त-ए-सुबुक-गाम ग़लत
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ग़ज़ल
और कुछ लफ़्ज़ गढ़ूँ सनअत-ए-ईहाम ग़लत
जमील मज़हरी