और होती मेरी रुस्वाई निखरता और कुछ
ग़ौर करता और कुछ इज़हार करता और कुछ
यार लोगों में सबक़ बनती मिरी आवारगी
सानेहा इस शहर में मुझ पर गुज़रता और कुछ
इन दिनों दीदा भी लगता है शुनीदा की तरह
काश हर्फ़ ओ सौत के मन में उतरता और कुछ
आख़िरी हिचकी से दम टूटा न नब्ज़ अपनी रुकी
तू अगर होता मिरे आगे तो मरता और कुछ
साँस लेने भी न पाया था कि मंज़र गुम हुआ
मैं किसी क़ाबिल न था वर्ना ठहरता और कुछ
नसरी नज़्में कहने वाले तो फ़रिश्ते हैं तमाम
मुझ गुनहगार-ए-ग़ज़ल पर क़हर उतरता और कुछ
बे-तकल्लुफ़ इस क़दर था क़त्ल मेरा कर दिया
वो अदू होता तो 'काविश' मुझ से डरता और कुछ

ग़ज़ल
और होती मेरी रुस्वाई निखरता और कुछ
काविश बद्री