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और भी आएँगे कुछ अहल-ए-वफ़ा मेरे बा'द | शाही शायरी
aur bhi aaenge kuchh ahl-e-wafa mere baad

ग़ज़ल

और भी आएँगे कुछ अहल-ए-वफ़ा मेरे बा'द

कर्रार नूरी

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और भी आएँगे कुछ अहल-ए-वफ़ा मेरे बा'द
और भी निखरेगी दुनिया की फ़ज़ा मेरे बा'द

ए'तिराफ़ अपनी ख़ताओं का मैं करता ही चलूँ
जाने किस किस को मिले मेरी सज़ा मेरे बा'द

ज़िंदगी साथ है और दार-ओ-रसन पर है नज़र
ख़ुद बदल जाएगा मफ़हूम-ए-क़ज़ा मेरे बा'द

ग़ाएबाना भी तआ'रुफ़ मिरा क्या क्या न हुआ
हाए वो शख़्स कि जो मुझ से मिला मेरे बा'द

ज़ख़्म-ए-दिल हैं मिरे फूलों की गुज़र-गाहों में
नर्म-रौ रहना ज़रा बाद-ए-सबा मेरे बा'द

कल तिरी बज़्म का हर एक तरहदार-ए-वफ़ा
लज़्ज़त-ए-रश्क से महरूम हुआ मेरे बा'द

काश उस से भी तआ'रुफ़ मिरा होता 'नूरी'
जिस पे वो पहले-पहल होंगे ख़फ़ा मेरे बा'द