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अता के ज़ोर-ए-असर से भी टूट सकती थी | शाही शायरी
ata ke zor-e-asar se bhi TuT sakti thi

ग़ज़ल

अता के ज़ोर-ए-असर से भी टूट सकती थी

ख़ावर जीलानी

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अता के ज़ोर-ए-असर से भी टूट सकती थी
वो शाख़ बार-ए-समर से भी टूट सकती थी

मैं दिल में सच की नुमू से था ख़ौफ़ खाया हुआ
कि सीप ताब-ए-गोहर से भी टूट सकती थी

उसी पे था मिरे हर एक तीर का तकिया
कमाँ जो खींच के डर से भी टूट सकती थी

पड़ी थी आह को ही ख़ुद-नुमाई की वर्ना
ख़मोशी दीदा-ए-तर से भी टूट सकती थी

जुड़े हुए थे बहुत वसवसे ख़यालों से
सो नींद ख़्वाब के शर से भी टूट सकती थी

दिलों की शीशागरी कार-गह-ए-हस्ती में
हुनर के ज़ेर ओ ज़बर से भी टूट सकती थी

ये आब वो था कि आतिश भड़क न पाने की
रिवायत एक शरर से भी टूट सकती थी

मैं एक ऐसा किनारा था जिस की क़ुर्बत को
वो लहर अपने भँवर से भी टूट सकती थी

हर एक लश्करी इतरा रहा था जिस पे वो तेग़
ख़याल-हा-ए-ज़रर से भी टूट सकती थी

ज़मीं न होती अगर इस कमाल की हामिल
क़यामत आसमाँ पर से भी टूट सकती थी

तू ख़ुश-नसीब था वर्ना तिरी अना की फ़सील
कमाल-ए-सर्फ़-ए-नज़र से भी टूट सकती थी