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अता-ए-अब्र से इंकार करना चाहिए था | शाही शायरी
ata-e-abr se inkar karna chahiye tha

ग़ज़ल

अता-ए-अब्र से इंकार करना चाहिए था

यासमीन हमीद

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अता-ए-अब्र से इंकार करना चाहिए था
मैं सहरा थी मुझे इक़रार करना चाहिए था

लहू की आँच देनी चाहिए थी फ़ैसले को
उसे फिर नक़्श-बर-दीवार करना चाहिए था

अगर लफ़्ज़ ओ बयाँ साकित खड़े थे दूसरी सम्त
हमीं को रंज का इज़हार करना चाहिए था

अगर इतनी मुक़द्दम थी ज़रूरत रौशनी की
तो फिर साए से अपने प्यार करना चाहिए था

समुंदर हो तो उस में डूब जाना भी रवा है
मगर दरियाओं को तो पार करना चाहिए था

दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को सुब्ह सफ़र की रौशनी में
शब-ए-ग़म के लिए तय्यार करना चाहिए था

शिकस्त-ए-ज़िंदगी का अक्स बन कर रह गया है
वही लम्हा जिसे शहकार करना चाहिए था