अस्र-ए-जदीद आया बड़ी धूम-धाम से
लेकिन शिकस्त खा गया पिछले निज़ाम से
करता है कोई तर्क-ए-तअल्लुक़ भी इस तरह
महरूम हो गया हूँ पयाम-ओ-सलाम से
ज़रदार के सलाम में सब्क़त सभी की है
महरूम मुफ़्लिसी है जवाब-ए-सलाम से
किस की सदा फ़ज़ाओं में गूँजी है चार-सू
किस ने मुझे पुकारा है बचपन के नाम से
बेचैनियों में रात गुज़रती है इस तरह
आसेब कोई घेर ले जैसे कि शाम से
अब बा-शुऊर लोग भी ये सोचने लगे
रखना है हम को काम फ़क़त अपने काम से
सफ़्फ़ाकियाँ बढ़ीं तो दरिंदा-सिफ़त बना
इंसान गिरा है आदमिय्यत के मक़ाम से
बारिश नहीं हुई तो मुझे फ़ाएदा हुआ
महफ़ूज़ है मकान मिरा इंहिदाम से
हल्की हँसी ने फ़िक्र को ज़ौ-बार कर दिया
फूटी किरन कि तरह लब-ए-तश्ना-काम से
ये तो है फ़ज़्ल-ए-रब कि तरन्नुम हुआ नसीब
लेकिन बयाज़ ख़ाली है ख़ुद के कलाम से
ग़ज़ल
अस्र-ए-जदीद आया बड़ी धूम-धाम से
हैदर अली जाफ़री