असीरी में तबाही रौनक़-ए-काशाना हो जाए
क़फ़स ही नालों से जल कर चराग़-ए-ख़ाना हो जाए
तग़ाफ़ुल साज़गार-ए-शौक़-ए-अहल-ए-दर्द क्या होगा
अदा से दो फ़रेब ऐसा कि दिल दीवाना हो जाए
न कहना ग़ैर से क़ासिद कि मैं मतलब नहीं समझा
पयाम-ए-यार है है मा'नी-ए-बेगाना हो जाए
नहीं क्यूँ हज़रत-ए-मूसा की बेताबी के हम-पैरव
कि राज़-ए-दिल ज़बाँ पर आए और अफ़्साना हो जाए
कहाँ तक ज़ब्त-ए-बे-ताबी दिल-ए-मिस्कीं मुझे डर है
तिरी ख़ू-ए-तहम्मुल से वो बे-परवा न हो जाए
फ़ुग़ाँ करते हुए जा पहुँचो उस की बज़्म-ए-इशरत में
कभी तो ऐ 'ज़की' ये शोख़ी-ए-रिंदाना हो जाए

ग़ज़ल
असीरी में तबाही रौनक़-ए-काशाना हो जाए
मोहम्मद ज़करिय्या ख़ान