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असीरी में तबाही रौनक़-ए-काशाना हो जाए | शाही शायरी
asiri mein tabahi raunaq-e-kashana ho jae

ग़ज़ल

असीरी में तबाही रौनक़-ए-काशाना हो जाए

मोहम्मद ज़करिय्या ख़ान

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असीरी में तबाही रौनक़-ए-काशाना हो जाए
क़फ़स ही नालों से जल कर चराग़-ए-ख़ाना हो जाए

तग़ाफ़ुल साज़गार-ए-शौक़-ए-अहल-ए-दर्द क्या होगा
अदा से दो फ़रेब ऐसा कि दिल दीवाना हो जाए

न कहना ग़ैर से क़ासिद कि मैं मतलब नहीं समझा
पयाम-ए-यार है है मा'नी-ए-बेगाना हो जाए

नहीं क्यूँ हज़रत-ए-मूसा की बेताबी के हम-पैरव
कि राज़-ए-दिल ज़बाँ पर आए और अफ़्साना हो जाए

कहाँ तक ज़ब्त-ए-बे-ताबी दिल-ए-मिस्कीं मुझे डर है
तिरी ख़ू-ए-तहम्मुल से वो बे-परवा न हो जाए

फ़ुग़ाँ करते हुए जा पहुँचो उस की बज़्म-ए-इशरत में
कभी तो ऐ 'ज़की' ये शोख़ी-ए-रिंदाना हो जाए