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असीरान-ए-इश्क़-ए-बुताँ और भी हैं | शाही शायरी
asiran-e-ishq-e-butan aur bhi hain

ग़ज़ल

असीरान-ए-इश्क़-ए-बुताँ और भी हैं

ललन चौधरी

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असीरान-ए-इश्क़-ए-बुताँ और भी हैं
नहीं मैं ही महव-ए-फ़ुग़ाँ और भी हैं

अभी ये जफ़ा का है आग़ाज़ ऐ दिल
वफ़ा के अभी इम्तिहाँ और भी हैं

नहीं इक फ़लक की है मुझ पर इनायत
मिरे हाल पर मेहरबाँ और भी हैं

हमीं से है क्यूँ लाग बर्क़-ए-तपाँ को
चमन में कई आशियाँ और भी हैं

रह-ए-इश्क़ में मिट गए हम तो क्या ग़म
रह-ए-इश्क़ में कारवाँ और भी हैं

कहा जब से है हाल-ए-दिल उन से अपना
वो मुझ से हुए बद-गुमाँ और भी हैं

वतन की तरक़्क़ी पे ख़ुश हो न 'आफ़त'
अभी बेकस-ओ-बे-मकाँ और भी हैं