असीर-ए-पंजा-ए-अहद-ए-शबाब कर के मुझे
कहाँ गया मिरा बचपन ख़राब कर के मुझे
किसी के दर्द-ए-मोहब्बत ने उम्र-भर के लिए
ख़ुदा से माँग लिया इंतिख़ाब कर के मुझे
ये उन के हुस्न को है सूरत-आफ़रीं से गिला
ग़ज़ब में डाल दिया ला-जवाब कर के मुझे
वो पास आने न पाए कि आई मौत की नींद
नसीब सो गए मसरूफ़-ए-ख़्वाब कर के मुझे
मिरे गुनाह ज़ियादा हैं या तिरी रहमत
करीम तू ही बता दे हिसाब कर के मुझे
मैं उन के पर्दा-ए-बेजा से मर गया 'मुज़्तर'
उन्हों ने मार ही डाला हिजाब कर के मुझे
ग़ज़ल
असीर-ए-पंजा-ए-अहद-ए-शबाब कर के मुझे
मुज़्तर ख़ैराबादी