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असीर-ए-बज़्म हूँ ख़ल्वत की जुस्तुजू में हूँ | शाही शायरी
asir-e-bazm hun KHalwat ki justuju mein hun

ग़ज़ल

असीर-ए-बज़्म हूँ ख़ल्वत की जुस्तुजू में हूँ

फ़रासत रिज़वी

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असीर-ए-बज़्म हूँ ख़ल्वत की जुस्तुजू में हूँ
मैं अपने आप से मिलने की आरज़ू में हूँ

मिरी सरिश्त में रंग-ए-बहार है लेकिन
बहुत दिनों से किसी बाग़-ए-बे-नुमू में हूँ

तो मुझ को भूल गया है मगर मिरे मुतरिब
मैं दर्द बन के तिरे नग़्मा-ए-गुलू में हूँ

ख़िज़ाँ-रसीदा किसी नख़्ल-ए-नीम-जाँ के तले
मुझे भी देख उसी शाम-ए-ज़र्द-रू में हूँ

भटकता रहता हूँ शाम-ओ-सहर नहीं मा'लूम
मैं किसी तलाश में हूँ किस की जुस्तुजू में हूँ

वो जिस के तर्ज़-ए-मसीहाई पर है शहर निसार
उसी की तेग़ से डूबा हुआ लहू में हूँ

मैं एक आतिश-ए-ख़्वाब-आफ़रीदा की सूरत
कभी चराग़ की लौ में कभी सुबू में हूँ

तू मेरे लफ़्ज़ों से बाहर मुझे तलाश न कर
छुपा हुआ मैं कहीं अपनी गुफ़्तुगू में हूँ

पुकारता हूँ मदद को कोई नहीं आता
सितम की शाम है और नरग़ा-ए-अदू में हूँ