अश्कों को आरज़ू-ए-रिहाई है रोइए
आँखों की अब इसी में भलाई है रोइए
रोना इलाज-ए-ज़ुल्मत-ए-दुनिया नहीं तो क्या
कम-अज़-कम एहतिजाज-ए-ख़ुदाई है रोइए
तस्लीम कर लिया है जो ख़ुद को चराग़-ए-हक़
दुनिया क़दम क़दम पे सबाई है रोइए
ख़ुश हैं तो फिर मुसाफ़िर-ए-दुनिया नहीं हैं आप
इस दश्त में बस आबला-पाई है रोइए
हम हैं असीर-ए-ज़ब्त इजाज़त नहीं हमें
रो पा रहे हैं आप बधाई है रोइए
ग़ज़ल
अश्कों को आरज़ू-ए-रिहाई है रोइए
अब्बास क़मर