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अश्क जो आँख में उबलते हैं | शाही शायरी
ashk jo aankh mein ubalte hain

ग़ज़ल

अश्क जो आँख में उबलते हैं

शुजा

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अश्क जो आँख में उबलते हैं
दीप दिल के उन्ही से जलते हैं

मौसमों का गिला नहिं करते
गिर के जो आदमी सँभलते हैं

ग़म-ए-जान-ए-बहार के सदक़े
ग़म जहाँ के इसी से टलते हैं

उन को आख़िर जुनूँ से क्या हासिल
पैरहन रोज़ जो बदलते हैं

हम ने गर्मी-ए-शम्अ क्या करनी
गर्मी-ए-शौक़ में पिघलते हैं

वाइज़-ए-ना-समझ पिएँ शर्बत
हम कहाँ ख़ुल्द से बहलते हैं

कैफ़ ओ मस्ती 'शुजाअ' फ़लक तक है
दर्द यूँ क़ल्ब में मचलते हैं