अश्क जो आँख में उबलते हैं
दीप दिल के उन्ही से जलते हैं
मौसमों का गिला नहिं करते
गिर के जो आदमी सँभलते हैं
ग़म-ए-जान-ए-बहार के सदक़े
ग़म जहाँ के इसी से टलते हैं
उन को आख़िर जुनूँ से क्या हासिल
पैरहन रोज़ जो बदलते हैं
हम ने गर्मी-ए-शम्अ क्या करनी
गर्मी-ए-शौक़ में पिघलते हैं
वाइज़-ए-ना-समझ पिएँ शर्बत
हम कहाँ ख़ुल्द से बहलते हैं
कैफ़ ओ मस्ती 'शुजाअ' फ़लक तक है
दर्द यूँ क़ल्ब में मचलते हैं

ग़ज़ल
अश्क जो आँख में उबलते हैं
शुजा