अश्क-ए-ग़म उक़्दा-कुशा-ए-ख़लिश-ए-जाँ निकला
जिस को दुश्वार मैं समझा था वो आसाँ निकला
किस क़दर दस्त-ए-जुनूँ बे-सर-ओ-सामाँ निकला
तुझ मैं इक तार न ऐ चाक-गिरेबां निकला
उफ़ वो तक़दीर जो तदबीर की पाबंद रही
हैफ़ वो दर्द जो मिन्नत-कश-ए-दरमाँ निकला
ख़ाक हो कर भी रहा जल्वा-तराज़ी का दिमाग़
मेरा हर ज़र्रा-ए-दिल तूर-बदामाँ निकला
अल-अमाँ वो ख़लिश-ए-जाँ जो मिटाए न मिटी
हाए वो दम जो ब-सद-काविश-ए-पिन्हाँ निकला
ग़ज़ल
अश्क-ए-ग़म उक़्दा-कुशा-ए-ख़लिश-ए-जाँ निकला
हादी मछलीशहरी