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अश्क-ए-ग़म उक़्दा-कुशा-ए-ख़लिश-ए-जाँ निकला | शाही शायरी
ashk-e-gham uqda-kusha-e-KHalish-e-jaan nikla

ग़ज़ल

अश्क-ए-ग़म उक़्दा-कुशा-ए-ख़लिश-ए-जाँ निकला

हादी मछलीशहरी

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अश्क-ए-ग़म उक़्दा-कुशा-ए-ख़लिश-ए-जाँ निकला
जिस को दुश्वार मैं समझा था वो आसाँ निकला

किस क़दर दस्त-ए-जुनूँ बे-सर-ओ-सामाँ निकला
तुझ मैं इक तार न ऐ चाक-गिरेबां निकला

उफ़ वो तक़दीर जो तदबीर की पाबंद रही
हैफ़ वो दर्द जो मिन्नत-कश-ए-दरमाँ निकला

ख़ाक हो कर भी रहा जल्वा-तराज़ी का दिमाग़
मेरा हर ज़र्रा-ए-दिल तूर-बदामाँ निकला

अल-अमाँ वो ख़लिश-ए-जाँ जो मिटाए न मिटी
हाए वो दम जो ब-सद-काविश-ए-पिन्हाँ निकला