अश्क बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी 
शो'ले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी 
मेरे होने का सबब मुझ को बताती लेकिन 
मेरे पैरों में धड़कती रही मिट्टी मेरी 
कुछ तो बाक़ी था मिरी मिट्टी से रिश्ता मेरा 
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी 
दूर प्रदेश के तारे में भी शबनम की तरह 
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी 
लोक-नृत्यों के कई ताल सुहाने बन कर 
मेरे पैरों में थिरकती रही मिट्टी मेरी 
सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने 
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी 
मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उस ने 
ज़ेहन में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी 
कोशिशें जितनी बचाने की इसे की मैं ने 
और उतनी ही धड़कती रही मिट्टी मेरी
        ग़ज़ल
अश्क बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
द्विजेंद्र द्विज

