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अश्क-बारी नहीं फ़ुर्क़त में शरर-बारी है | शाही शायरी
ashk-bari nahin furqat mein sharar-bari hai

ग़ज़ल

अश्क-बारी नहीं फ़ुर्क़त में शरर-बारी है

सबा अकबराबादी

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अश्क-बारी नहीं फ़ुर्क़त में शरर-बारी है
आँख में ख़ून का क़तरा है कि चिंगारी है

हर नफ़स ज़ीस्त गुज़र जाने का ग़म तारी है
मौत का ख़ौफ़ भी इक रूह की बीमारी है

बावजूदे-कि मोहब्बत कोई ज़ंजीर नहीं
फिर भी दिल को मिरे एहसास-ए-गिरफ़्तारी है

कुछ इस अंदाज़ से उस ने ग़म-ए-फ़ुर्क़त बख़्शा
जैसे ये भी कोई इनआम-ए-वफ़ादारी है

ग़म-ए-ख़ामोश को बे-वज्ह तसल्ली देना
दिल-नवाज़ी की ये सूरत भी दिल-आज़ारी है

रोज़ हालात बदलते हैं ब-शर्त-ए-तौफ़ीक़
ज़ीस्त मजमूआ-ए-आसानी ओ दुश्वारी है

जागना इश्क़ में हर एक की तक़दीर नहीं
नींद क़ुर्बान हो जिस पर ये वो बेदारी है

की मिरे हाथ से यूँ नज़्र-ए-बहार उस ने क़ुबूल
जैसे ये फूल नहीं है कोई चिंगारी है

इक तग़ाफ़ुल से हुआ इश्क़ का दिल को एहसास
उस की ग़फ़लत का नतीजा मिरी हुश्यारी है

यूँ भी आराइश-ए-पैहम में उलझता है कोई
ये ख़ुद-आराई है देखो कि ख़ुद-आज़ारी है

मातम-ए-इश्क़ से फ़ुर्सत नहीं मिलती है 'सबा'
रोज़-ओ-शब अपनी उमीदों को अज़ा-दारी है