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अश्क आँखों में न थे दीद का सौदा तो न था | शाही शायरी
ashk aankhon mein na the did ka sauda to na tha

ग़ज़ल

अश्क आँखों में न थे दीद का सौदा तो न था

ख़िज़्र बर्नी

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अश्क आँखों में न थे दीद का सौदा तो न था
इश्क़ से पहले किसी तौर तक़ाज़ा तो न था

अपने ही साया से डरता हूँ इलाही तौबा
इस तरह से कभी अंदेशा-ए-फ़र्दा तो न था

उन से पहले भी चमन में थी सहर की रौनक़
बाद-ए-सरसर की जवानी का नज़ारा तो न था

पहले भी चाँद सितारे थे फ़लक पर मौजूद
गेसु-ए-शब को बहारों ने सँवारा तो न था

जाने क्यूँ आँखों में आते हैं सिमट कर आँसू
सोचता हूँ कहीं गर्दिश में सितारा तो न था

याद आते ही बढ़ा उन से मुलाक़ात का शौक़
उठ गए ख़ुद ही क़दम दिल में इरादा तो न था

मैं ने मय-ख़ाने के हर जाम में गर्मी पाई
जाने क्या चीज़ थी पैमानों में बादा तो न था

अब तो हर साँस पे होता है गुमान-ए-धड़कन
दर्द उठता ही रहा है मगर ऐसा तो न था

आँख झपकी थी 'ख़िज़र' नब्ज़ रुकी थी इक दम
कुछ भी कह लीजिए वो दोस्त का जल्वा तो न था