अश्क आँखों में डर से ला न सके
दिल की भड़की हुई बुझा न सके
न हिली जब ज़बाँ नज़ाकत से
रह गए देख कर बुला न सके
थीं जो उस में हया की कुछ बातें
शिकवा मेरा वो लब पे ला न सके
क्या हुए तेरे हौसले ऐ अश्क
हर्फ़-ए-तक़दीर को मिटा न सके
था ये ख़तरा कहीं पसंद न हों
गालियाँ भी मुझे सुना न सके
गो बहुत पास-ए-ग़ैर था लेकिन
आँख हम से भी वो चुरा न सके
पाँव चूमा किए हिना की तरह
जब कोई और रंग ला न सके
ख़ामुशी थी ब-शक्ल-ए-ज़ख़्म मुझे
लब तक अपने सवाल आ न सके
न मली उस ने पाँव में मेहंदी
रंग अपना अदू जमा न सके
इज़्तिराब-ए-क़ज़ा हुआ ये 'नसीम'
कि गले भी उसे लगा न सके
ग़ज़ल
अश्क आँखों में डर से ला न सके
नसीम देहलवी