अशआ'र की तख़्लीक़ में जलता है जिगर क्यूँ
यारब मुझे बख़्शा है ये जाँ-सोज़ हुनर क्यूँ
ग़म इश्क़ की सौग़ात है सीने से लगा ले
फूलों की तमन्ना है तो काँटों से हज़र क्यूँ
कुछ हद से सिवा हैं मिरे ग़म-ख़्वार वगरना
रहती है मिरे हाल पे यारों की नज़र क्यूँ
कल जिस को सर आँखों पर बिठाता था ज़माना
बैठा है सर-ए-राह वो अब ख़ाक-बसर क्यूँ
आरिज़ के गुलाबों पे उदासी की ये शबनम
नमनाक हैं आँखें तिरी आज ऐ गुल-ए-तर क्यूँ
फिर कौन गया पिछले पहर बज़्म से उठ कर
फिर सोग का आलम है ये हंगाम-ए-सहर क्यूँ
पत्थर के सिवा 'चाँद' यहाँ कुछ न मिलेगा
बैठा है सजाए हुए शीशों का तू घर क्यूँ
ग़ज़ल
अशआ'र की तख़्लीक़ में जलता है जिगर क्यूँ
महेंद्र प्रताप चाँद